लाशों के ढेर पर खड़ा हुआ वह मना रहा था जश्न,
खून का लाल रंग उसे दे रहा था सुकून।
वह कभी मुस्कुराता था, करता था जोर से अट्टहास।
नफरत से आँखें उसकी सिकुड़ जातीं थीं,
और कभी खुशी से चमक जाती थी-
हजार वाट के बल्ब की तरह।
कभी किसी शव को मारता था ठोकर,
और कभी किसी लाश को रौंद देता था।
वह कर रहा था अपना भरपूर मनोरंजन।
एक मासूम के शव को टांग लिया उसने संगीन पर-
और करने लगा अट्टहास।
अचानक उसे लगा बच्चे की शक्ल है-
कुछ जानी सी, पहचानी सी-
और लगा उसे गौर से देखने।
उसका थम गया अट्टहास, जाग उठीं संवेदनायें-
और बुझ गये आँखों के बल्ब,
बहने लगा आँसुओं का सैलाब-
क्योंकि वह उसका ही लख्ते-जिगर था।
लरजती आवाज में वह लगाने लगा बेसाख्ता नारे-
आतंकबाद मुर्दाबाद, आतंकबाद मुर्दाबाद।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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