Saturday 30 January 2016

एक अन्वेषण

तुम्हारे कुशल प्रबंधन ने,
बना दिया है स्वर्ग- 
और तुमने इसकी प्रशस्ति भी पाई है।
मैं स्वर्ग वासी होना नहीं चाहता।
तुम नितांत पत्नी ही बनी रहीं,
मुझे भी बनाये रखा पतिदेव।
मुझे देवत्व स्वीकार्य नहीं है।
मैंने जब भी मिलाने चाहे नयन,
तुम अवनत ही देखती रहीं।
मैं तुम्हारी चंचल चितवन का आकांक्षी था।
तुमने भोगने दिया है अपने आप को-
बन्दिशों व हिदायतों के बीच।
मैं मुक्त साहचर्य का अभिलाषी था।
मैंने जब भी किया है प्रयत्न तुममें खोजने को प्रणयिनी,
तुमने कर दिया पहलू बदल कर विरोध-
और कठोर मन परिणयिनी ही बनी रहीं।
क्या यह मेरा दुराग्रह था?
मैंने तुम्हारे सर्द व्यवहार का नहीं किया मुखर विरोध-
बचने को लंपटता की लांछना से।
मैं पिसता रहा हूँ अपनी उन्मुक्त प्रेम की लालसा-
और तुम्हारी निर्लिप्तता के पाटों के बीच।
यह विडम्बना ही तो है।
आज जब खोज लिया गया है ईश्वरीय कण हिग्स बोसोन,
मेरा असफल अन्वेषण तुममें प्रीतिकण खोजने तक ही-
सीमित रहा है।
क्या मैं उपहास का पात्र नहीं बन गया हूँ?
जयन्ती प्रसाद शर्मा   

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