Tuesday 19 September 2017

जहाँ तुम थे

जहाँ तुम थे वहाँ मैं भी था,
किसी पुस्तक सी प्रस्तावना सा।
तमाम किन्तु परन्तुओं के बीच,
स्वीकार्यता की सम्भावना सा।
उन मान्यनीयों के बीच,
मैं था जैसे दुर्गंधमय कीच।
मैं सहता रहा वाग्वाण,
धनहीन की अवमानना सा।
वहाँ नहीं थी मेरी कोई वकत,
कारण था मेरी निर्धनता फ़क़त।
फिर भी मैं रहा वहाँ,
अपनों की शुभकामना सा।
सब थे अपने आप में मस्त,
सभी थे दुर्भावना के अभ्यस्त।
मैं बना रहा सहद्यों में,
‘सर्वेभवन्तु सुखिन' की कामना सा।

जयन्ती प्रसाद शर्मा  

2 comments:

रेणु said...

आदरणीय -- आपकी दिव्य भावों से भरी भावपूर्ण रचना पढ़ी | रचना का अंतर्निहित भाव बड़ा ही सुंदर है | सचमुच दुर्भावनाओं के अभ्यस्त इस प्रपंची समाज में छद्म लोग सदैव ही अपनी कलुषित भावना के साथ रहते हैं तो निष्कलुष और निर्मल मन के लोग अपनी सहृदयता को कभी नहीं छोड़ते ------ यही साधुजन मानवता के परिचायक बन दुनिया में सद्भावना का आलोक फैलाते हैं | | सादर हार्दिक शुभकामना आपको ------

रेणु said...

आदरणीय -- आपकी दिव्य भावों से भरी भावपूर्ण रचना पढ़ी | रचना का अंतर्निहित भाव बड़ा ही सुंदर है | सचमुच दुर्भावनाओं के अभ्यस्त इस प्रपंची समाज में छद्म लोग सदैव ही अपनी कलुषित भावना के साथ रहते हैं तो निष्कलुष और निर्मल मन के लोग अपनी सहृदयता को कभी नहीं छोड़ते ------ यही साधुजन मानवता के परिचायक बन दुनिया में सद्भावना का आलोक फैलाते हैं | | सादर हार्दिक शुभकामना आपको ------