Saturday, 17 November 2018

हम नहीं थे इनके

हम नहीं थे इनके नहीं थे उनके,
सबके ही हम खास रहे।
नहीं किसी से दूर रहे,
सबके ही हम पास  रहे।
जो मिला उसे अपना समझा,
जो नहीं मिला उसे सपना समझा।
रूठे अपने टूटे सपने,
नहीं रोये नहीं उदास रहे।
चूमना चाहते थे हम गगन,
छू भी न सके पर रहे मगन।
नहीं विफलता से हुए विकल,
असफलता से नहीं निराश रहे।
झेले जीवन में झंझावात,
करने पड़ जाते थे उपवास।
नहीं घबड़ाये नहीं बिल्लाये,
नहीं हालातों के दास रहे।
नहीं समेटने की रही भावना,
नहीं घर भरने की रही कामना।
सारा जहाँ हमारा था,
सर्वे भवन्तु सुखिन को करते हम प्रयास रहे।

जयन्ती प्रसाद शर्मा


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