Thursday 13 June 2019

जीवन है संग्राम

बन्धु रे जीवन है संग्राम,
निज अस्तित्व बचाने को,
लड़ना पड़ता है आठौ याम।
 कभी समाज से कभी सिद्धांत से,
कभी अपने मन की उद्भ्रान्ति से।
बीत जाता है जीवन लड़ते लड़ते,
मिलता नहीं मुकाम।
कुछ स्वस्ति वाचक समाज में,
पा जाते हैं शीर्ष ठौर ।
लेकर सहारा जाति पाँति का,
बन जाते हैं सिर मौर।
वे ही संचालन करते हैं समाज का,
पाते हैं धन और नाम।
सोच है उनकी होंगे बदनाम-
पर नाम तो होगा।
नही हो भला देश समाज का,
उनका तो होगा ।
अनाम मरने से अच्छा है,
मरना होकर बदनाम।
ऐसी मानसिकता से समाज,
कैसे उन्नति पायेगा ।
अवनत समाज के होने से,
क्या देश शीर्ष पर जाएगा ?
संसद में होती है टाँग खिंचाई,
देश की धूमिल होती है छवि अभिराम।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

6 comments:

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15 -06-2019) को "पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक- 3367) पर भी होगी।

--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है

….
अनीता सैनी

अनीता सैनी said...

जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (15 -06-2019) को "पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक- 3367) पर भी होगी।

--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है

….
अनीता सैनी

सुशील कुमार जोशी said...

सटीक और सुन्दर अभिव्यक्ति।

मन की वीणा said...

सटीक और यथार्थ भावों वाला सुंदर लेख।

Kamini Sinha said...

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ,सादर नमस्कार

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब कहा है .. निज अस्तित्व बचाने के लिए तो हमेशा संग्राम करना होता है ...
प्रकृति भी यही चाहती है यही पौरुष भी है ...
अच्छी रचना ...