लगता है सर्वत्र आग लगी है,
दहक रहे नफरत के अंगारे।
लाल भभूका हैं सबके मुख,
आरक्त हुऐ गुस्से के मारे।
सूख गये हैं नेह कूप,
जुल्म ढा रही ईर्ष्या की धूप।
दिखता नहीं कहीँ सौहार्द,
जायँ कहाँ अपनों से हारे।
अपनों का चुक गया अपनापन,
रहने लगी सम्बन्धों में अनबन।
गला काटते अपने ही अपनों का,
दुश्मन बन गये प्राणों के प्यार।
देख किसी का उत्कर्ष हाथ मलते हैं,
स्वयं नहीं कुछ कर पाते लेकिन ईर्ष्या करते हैं।
बिना बात करते हैं नफरत,
जिनके उजले तन हैं पर मन काले।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
दहक रहे नफरत के अंगारे।
लाल भभूका हैं सबके मुख,
आरक्त हुऐ गुस्से के मारे।
सूख गये हैं नेह कूप,
जुल्म ढा रही ईर्ष्या की धूप।
दिखता नहीं कहीँ सौहार्द,
जायँ कहाँ अपनों से हारे।
अपनों का चुक गया अपनापन,
रहने लगी सम्बन्धों में अनबन।
गला काटते अपने ही अपनों का,
दुश्मन बन गये प्राणों के प्यार।
देख किसी का उत्कर्ष हाथ मलते हैं,
स्वयं नहीं कुछ कर पाते लेकिन ईर्ष्या करते हैं।
बिना बात करते हैं नफरत,
जिनके उजले तन हैं पर मन काले।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
1 comment:
सटीक सुन्दर अभिव्यक्ति
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