मुझे अपने बारे में नहीं कोई भरम,
सत्य स्वीकारने में नहीं कोई शरम।
सुगठित नहीं हैं मेरे विचार,
मैं भावों का पसरट्टा हूँ।
मैं करता हूँ सम्मोहित हूँ मोहन,
आपकी भावनाओं का करता हूँ दोहन।
रगड़ रगड़ कर करता हूँ समरस,
मैं पत्थर का सिल बट्टा हूँ।
सब रहते हैं मुझसे निराश,
पूरी नहीं कर पाता किसी की आस।
ऊँचे पेड़ पर लगा हुआ,
मैं अलभ्य, फल खट्टा हूँ।
हर कोई देता मुझको नकार,
कोई नहीं करता मुझको स्वीकार।
मैं लोगों की नज़रों में,
झांसा हूँ, झपट्टा हूँ।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
सत्य स्वीकारने में नहीं कोई शरम।
सुगठित नहीं हैं मेरे विचार,
मैं भावों का पसरट्टा हूँ।
मैं करता हूँ सम्मोहित हूँ मोहन,
आपकी भावनाओं का करता हूँ दोहन।
रगड़ रगड़ कर करता हूँ समरस,
मैं पत्थर का सिल बट्टा हूँ।
सब रहते हैं मुझसे निराश,
पूरी नहीं कर पाता किसी की आस।
ऊँचे पेड़ पर लगा हुआ,
मैं अलभ्य, फल खट्टा हूँ।
हर कोई देता मुझको नकार,
कोई नहीं करता मुझको स्वीकार।
मैं लोगों की नज़रों में,
झांसा हूँ, झपट्टा हूँ।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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