शमा रातभर जलती रही,
पिघलती रही।
खोती रही अपना अस्तित्व,
मिटाने को तमस।
उसकी सदेच्छा,
न भटके कोई अँधेरे में।
न होये अधीर,
घबड़ा कर निबिड़ अन्धकार से।
उसके परोपकारी भाव का,
नहीं दिया किसी ने सिला।
नहीं गाया किसी ने प्रशस्ति गीत,
उसके उत्सर्ग का।
पतंगा, सृष्टि का क्षुद्र जीव,
न सह सका आभारहीनता।
वह हो गया उद्यत बचाने को,
शमा का अस्तित्व।
वह दीवानगी की हद से गुजरता रहा,
बुझाने को शमा उसकी लौ में जलता रहा।
पतंगों की लाशों का लग गया ढेर,
शमा वैसे ही निर्विकार जलती रही।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
पिघलती रही।
खोती रही अपना अस्तित्व,
मिटाने को तमस।
उसकी सदेच्छा,
न भटके कोई अँधेरे में।
न होये अधीर,
घबड़ा कर निबिड़ अन्धकार से।
उसके परोपकारी भाव का,
नहीं दिया किसी ने सिला।
नहीं गाया किसी ने प्रशस्ति गीत,
उसके उत्सर्ग का।
पतंगा, सृष्टि का क्षुद्र जीव,
न सह सका आभारहीनता।
वह हो गया उद्यत बचाने को,
शमा का अस्तित्व।
वह दीवानगी की हद से गुजरता रहा,
बुझाने को शमा उसकी लौ में जलता रहा।
पतंगों की लाशों का लग गया ढेर,
शमा वैसे ही निर्विकार जलती रही।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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