मानवती तुम आ जाओ!
तुम रुँठी सपने रूठे,
कर्म–भाग्य मेरे फूटे।
बिखर गया मेरा जीवन,
मन माला के मनके टूटे।
टूटे मनके पिरो पिरो कर,
सुन्दर हार बना जाओ ...........मानवती तुम .......... ।
भावों की लड़ियाँ टूट गयी हैं,
उपमायें मुझसे रुँठ गयी हैं।
उलझ गया है शब्दजाल,
गीतों की कड़ियाँ छूट गयी हैं।
छूटी कड़ियों को मिला मिलूँ कर,
सुन्दर गीत बना जाओ .........मानवती तुम ............ ।
नहीं किसी अभिनन्दन की चाह मुझको,
नहीं किसी के कुछ कहने की परवाह मुझको।
मेरा अभीष्ट तेरा वन्दन,
तुमको पाने की चाह मुझको।
दर्शन के प्यासे नैनों की,
आकर प्यास बुझा जाओ ..........मानवती तुम .............. ।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
तुम रुँठी सपने रूठे,
कर्म–भाग्य मेरे फूटे।
बिखर गया मेरा जीवन,
मन माला के मनके टूटे।
टूटे मनके पिरो पिरो कर,
सुन्दर हार बना जाओ ...........मानवती तुम .......... ।
भावों की लड़ियाँ टूट गयी हैं,
उपमायें मुझसे रुँठ गयी हैं।
उलझ गया है शब्दजाल,
गीतों की कड़ियाँ छूट गयी हैं।
छूटी कड़ियों को मिला मिलूँ कर,
सुन्दर गीत बना जाओ .........मानवती तुम ............ ।
नहीं किसी अभिनन्दन की चाह मुझको,
नहीं किसी के कुछ कहने की परवाह मुझको।
मेरा अभीष्ट तेरा वन्दन,
तुमको पाने की चाह मुझको।
दर्शन के प्यासे नैनों की,
आकर प्यास बुझा जाओ ..........मानवती तुम .............. ।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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