कुछ अपनों के, कुछ परायों के कन्धों का लेकर सहारा-
पहुँच चुका था वह सफलता के उच्चतम शिखर पर।
आत्म गौरव से भर गया था वह,
साथ ही बौरा गया था।
उसने मिटा दिया था अपनी उन्नति में प्रयुक्त हर साधन, संसाधन को।
वह भूल गया था नीचे आने के लिये भी आवश्यक होती हैं सीढियाँ।
आत्म विभोर होकर उसने सिर उठा कर देखा,
वहाँ उच्चता ही उच्चता थी।
न था वहाँ कोई एसा जो उसे उसकी उन्नति और आत्म गौरव का-
कराता एहसास।
सभी वहाँ तक या और आगे तक पहुंचे थे स्व के साथ।
वह सफलता के नुकीले शिखर पर मुश्किल से खड़ा हो पा रहा था,
इस प्रयत्न में वह कभी कत्थक, कभी भरतनाट्यम करता सा
प्रतीत हो रहा था।
इतर प्रंशसा के अभाव ने उसे आत्म ग्लानि से भर दिया,
उसे होने लगी तीव्र लालसा कमतरों के बीच आने की।
सिर झुका कर उसने देखा नीचे की ओर।
न दिखाई देने पर धरातल उसने बंद कर लीं अपनी आँखें घबरा कर,
वह रख ना सका संतुलन और लुढ़क कर आने लगा तेजी से नीचे की ओर।
कुछ ही पल बाद सब चिन्ताओं से मुक्त उसका निष्पंद शरीर पड़ा था-
धरा पर।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
पहुँच चुका था वह सफलता के उच्चतम शिखर पर।
आत्म गौरव से भर गया था वह,
साथ ही बौरा गया था।
उसने मिटा दिया था अपनी उन्नति में प्रयुक्त हर साधन, संसाधन को।
वह भूल गया था नीचे आने के लिये भी आवश्यक होती हैं सीढियाँ।
आत्म विभोर होकर उसने सिर उठा कर देखा,
वहाँ उच्चता ही उच्चता थी।
न था वहाँ कोई एसा जो उसे उसकी उन्नति और आत्म गौरव का-
कराता एहसास।
सभी वहाँ तक या और आगे तक पहुंचे थे स्व के साथ।
वह सफलता के नुकीले शिखर पर मुश्किल से खड़ा हो पा रहा था,
इस प्रयत्न में वह कभी कत्थक, कभी भरतनाट्यम करता सा
प्रतीत हो रहा था।
इतर प्रंशसा के अभाव ने उसे आत्म ग्लानि से भर दिया,
उसे होने लगी तीव्र लालसा कमतरों के बीच आने की।
सिर झुका कर उसने देखा नीचे की ओर।
न दिखाई देने पर धरातल उसने बंद कर लीं अपनी आँखें घबरा कर,
वह रख ना सका संतुलन और लुढ़क कर आने लगा तेजी से नीचे की ओर।
कुछ ही पल बाद सब चिन्ताओं से मुक्त उसका निष्पंद शरीर पड़ा था-
धरा पर।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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