Friday, 30 May 2014

अनजानी सी राह

अनजानी सी राह पर चलता रहा वह निरुद्देश्य।
न थी उसकी कोई मंजिल, न था कोई लक्ष्य।
बस सामने थी एक अनंत राह-
जिसका न था कोई ओर न कोई छोर।
उसने किसी हमसफर से न की कभी कोई बात-
न पूंछी कुशलात, बस चलता ही रहा।
पल भर को न किया ठहराव,
न ठिठका क्षण भर किसी सघन वृक्ष की छाँव में-
करने को श्रम दूर।
लगता था उसको, था केवल चलते रहने का जूनून।
न किया कभी नैसर्गिकता का दर्शन, न अवलोकन-
वातावरण में पसरी सुषमा का।
उसने न कही अपनी, न सुनी किसी की व्यथा कथा,
न द्रवित हुआ मन किसी की देख कर दुर्दशा।
अब वह अपने निरुद्देश्य भटकने से ऊब चूका था-
टूट चूका था।
वह थककर, भरभराकर गिर पड़ा।
उसके प्राण पखेरू उड़ चले थे अनन्त आकाश में-
किसी अनजानी मंजिल की ओर।
शायद यही उसकी नियति थी।
जयन्ती प्रसाद शर्मा