बरसों पुराना एक ठूँठ यों
ही खड़ा हुआ था–
घर के आँगन में।
सुना है वह कभी हुआ करता
था एक विशाल वट वृक्ष।
उसकी घनी छाँह में बड़े
बड़े गुड़गुड़ाते थे हुक्का,
बच्चे किया करते थे
धमाचौकड़ी।
बड़े बूढों की अनुपस्थिति
में–
गत यौवनायें, बुढीयायें
बतियाती थी।
नव यौवनायें और छोटी छोटी
बच्चियां खिलखिलाती थी-
और करतीं थी अठखेलियाँ।
कालान्तर में वह विशाल वट
वृक्ष-
हो गया कालकवलित और खड़ा
रह गया यह ठूँठ।
एक दिन मैंने देखा उस ठूँठ में फूट रही थीं-
हरी हरी कोपलें।
वह ठूँठ होना चाहता था पल्लवित।
मै प्रकृति की इस लीला को
देखता रह गया।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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