पावस की अमावस की रात
किसी पापी के मन सी काली
घोर डरावनी
गंभीर मेघ गर्जन
दामिनी की चमक कर देती है
दामिनी की चमक कर देती है
विरहणी को त्रस्त
बादलों की गड़गड़ाहट से
चपल चपला की कड़कड़ाहट से
वह चिहुक उठती है
वह चिहुक उठती है
हो जाती है आशंकित
बैरिन बीजुरी गिर न जाये नशे मन पर
डर कर सिमट जाती है
बैरिन बीजुरी गिर न जाये नशे मन पर
डर कर सिमट जाती है
लग जाना चाहती है प्रिय के सीने से
बरखा की शीतल बूंदें
बरखा की शीतल बूंदें
विरह से तपते शरीर पर
लगतीं हैं तेजाब की फुहार सी
लगतीं हैं तेजाब की फुहार सी
उसकी बढ़ जाती है जलन
वह कर उठती है सीत्कार
अरे निर्दयी तुम्हें अभी परदेश जाना था
क्या नहीं लौटकर आना था
देखकर मौसम की दुश्वारी
सोचकर क्या हालत होगी हमारी
ओ संगदिल बेदर्दी सनम।
सोचकर क्या हालत होगी हमारी
ओ संगदिल बेदर्दी सनम।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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