मन की भटकन से उसका हर बार निशाना ऊक रहा है,
स्थिर प्रज्ञ नहीं होने से वह लक्ष्य से चूक रहा है।
जानता है उसका थूका उस पर ही गिरेगा,
फिर भी मुँह ऊपर कर थूक रहा है।
कोई नहीं मनायेगा उसको,
फिर भी पगला रूठ रहा है।
तोड़ता रहा है वह औरों के घर,
अब उसका भी घर टूट रहा है।
गाहे बगाहे करता रहा है लूट,
उसका साथी ही उसको लूट रहा है।
दर बदर करता रहा है वह लोगों को,
अब उसका भी दर छूट रहा है।
वह समझ गया है सदा नहीं रहती दबंगई,
ठिकाना अपने छिपने को ढूँढ रहा है।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
स्थिर प्रज्ञ नहीं होने से वह लक्ष्य से चूक रहा है।
जानता है उसका थूका उस पर ही गिरेगा,
फिर भी मुँह ऊपर कर थूक रहा है।
कोई नहीं मनायेगा उसको,
फिर भी पगला रूठ रहा है।
तोड़ता रहा है वह औरों के घर,
अब उसका भी घर टूट रहा है।
गाहे बगाहे करता रहा है लूट,
उसका साथी ही उसको लूट रहा है।
दर बदर करता रहा है वह लोगों को,
अब उसका भी दर छूट रहा है।
वह समझ गया है सदा नहीं रहती दबंगई,
ठिकाना अपने छिपने को ढूँढ रहा है।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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