Saturday, 9 May 2015

मैं किस प्रकार अपने पापों का प्रायश्चित करूँ ?

आसन्न प्रसवा गाय हो रही थी बेदम,
निकली पड़ रहीं थी उसकी आँखें और बह रहे थे अश्रु-
तीव्र प्रसव वेदना से।
इठ रहा था उसका शरीर और वह देख रही थी इधर उधर–
असहाय सी।
प्रसव पूर्ण होने से पूर्व वह डकरा उठी तेज आवाज़ में-
और पड़ रही होकर निढाल।
घबड़ाकर मैंने बंद कर लीं अपनी आँखे।
अचानक कौंध उठा एक चेहरा मेरे मस्तिष्क में,
वह चेहरा था मेरी माँ का।
वह माँ जिसे मैं झिड़क देता था बात बात पर,
कर चुका था मैं अनेक बार उसका तिरिस्कार।
वह बिना कोई प्रतिवाद किये, आँखों से अश्रु पौंछते हुये-
हट जाती थी वहाँ से।
मुझे होने लगी अपने आप से नफरत।
मै सोच रहा था मेरी माँ ने भी उठाया होगा कष्ट–
इसी प्रकार।
पी होगी वो भी तीव्र वेदना से और डकराई होगी–
मुझे जनमते समय।
माँ, ओ मेरी माँ मुझे कर देना क्षमा मेरी कृतघ्नता के लिये,
अथवा देना मुझे कठोर दंड मेरी उद्दंडता के लिये।
लेकिन मुझे पता है तू ऐसा कुछ नही करेगी।
मै किस प्रकार अपने पापों का प्रायश्चित करूं?
जयन्ती प्रसाद शर्मा

No comments: