सृजन के दौर से गुजरती हुई,
पोषण करने के कारण गर्भस्थ शिशु का-
तुम हो गई हो कृश-काय।
रक्तल्पता से तुम्हारा मुख हो गया है पीताभ-
अमलताश के पुष्प सा।
मातृत्व के सुखद अहसास से,
तुम्हारे पीत मुख की कान्ति हो गई है स्वर्णिम-
और वह दमक रहा है हेम सा।
तुम्हारी आँखों में पल रहे हैं-
आने वाले शिशु के मधुर स्वप्न।
तुम्हारी कोख में पल रहा बच्चा-
चलाता है जब धीरे धीरे पाँव,
तुम्हारा मन आत्म तुष्टि से भर जाता है।
तुम्हारा हाथ स्वत: ही चला जाता है उदर पर-
और तुम धीरे धीरे लगती हो उसे सहलाने।
तुम अपने अजन्मे शिशु की पुकार, माँ मुझे जन्म दे-
को सुन लेती हो अनहद नाद सा।
तुम अपने उदर को धीरे से थपथपा कर-
उसे दे देती हो परामर्श रखने को धैर्य-
प्रसवावधि आने तक।
तुम लावन्यमयी तो थी हीं,
अब हो गई हो ममतामयी, वात्सल्यमयी।
स्त्री होने की सार्थकता ने और पूर्णता ने तुम्हें-
गरिमामयी भी बना दिया है।
तुम्हारे इन नये कलेवरों के लिये-
तुम्हारा हार्दिक वन्दन अभिनन्दन।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
पोषण करने के कारण गर्भस्थ शिशु का-
तुम हो गई हो कृश-काय।
रक्तल्पता से तुम्हारा मुख हो गया है पीताभ-
अमलताश के पुष्प सा।
मातृत्व के सुखद अहसास से,
तुम्हारे पीत मुख की कान्ति हो गई है स्वर्णिम-
और वह दमक रहा है हेम सा।
तुम्हारी आँखों में पल रहे हैं-
आने वाले शिशु के मधुर स्वप्न।
तुम्हारी कोख में पल रहा बच्चा-
चलाता है जब धीरे धीरे पाँव,
तुम्हारा मन आत्म तुष्टि से भर जाता है।
तुम्हारा हाथ स्वत: ही चला जाता है उदर पर-
और तुम धीरे धीरे लगती हो उसे सहलाने।
तुम अपने अजन्मे शिशु की पुकार, माँ मुझे जन्म दे-
को सुन लेती हो अनहद नाद सा।
तुम अपने उदर को धीरे से थपथपा कर-
उसे दे देती हो परामर्श रखने को धैर्य-
प्रसवावधि आने तक।
तुम लावन्यमयी तो थी हीं,
अब हो गई हो ममतामयी, वात्सल्यमयी।
स्त्री होने की सार्थकता ने और पूर्णता ने तुम्हें-
गरिमामयी भी बना दिया है।
तुम्हारे इन नये कलेवरों के लिये-
तुम्हारा हार्दिक वन्दन अभिनन्दन।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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