Tuesday, 5 April 2016

नहीं छेड़ा तुमने कोई तराना

नहीं छेड़ा तुमने कोई तराना मेरे आने पै,
लगता है फर्क नहीं पड़ता है तुमको, मेरे नहीं आने पै।
मैं घुसता चला गया प्रकोष्ठ में,
चुम्बन जड़ दीना तुम्हारे ओष्ठ में।
तान दुपट्टा तुम सोई थीं,
शायद सपनों में खोई थीं।
पड़ी रहीं अलसाती, नहीं जागी तुम मेरे जगाने पै..... लगता है...............।
बाँहों में तुमको लीना,
अंकबद्ध तुमको कीना।
मुंदित नयन तुम पड़ी रहीं,
प्रस्तर प्रतिमा सी बनी रहीं।
नयनोन्मीलन कीना, पर नहीं झपकायी पलकें मेरे नयन मिलाने पै..... लगता है...............।
अति उत्साहित था मेरा मन,
नजरों में बसा था तेरा तन।
नहीं सब्र था पलभर मुझको,
स्पर्श किया उद्धेलित हो तुमको।
सहलाया मैंने बड़े प्रेम से, पर नहीं आई तुम्हें झुरझुरी मेरे सहलाने पै..... लगता है...............।
लेकर नाम पुकारा हमने,
सुनी अनसुनी कर दी तुमने।
बहुत क्रोध मुझको आया,
मैं मन मार चला आया।
प्रश्न कचोटता रहा रातभर, क्यों नहीं आई तुम मेरे बुलाने पै..... लगता है...............।


जयन्ती प्रसाद शर्मा 

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