वे शायर बड़े मशहूर थे,
पर बहुत मगरूर थे।
थे इंसानियत के पक्षधर,
मगर उससे बहुत ही दूर थे।
एक दिन बैठे थे ऊबे हुये,
कुछ नशे में डूबे हुये।
अचानक जाग उठी उनकी संवेदना,
करने लगे आंगन में खड़े कुत्ते की अभ्यर्थना।
किये स्पर्श उसके चरण,
पिताजी आपके बिना मेरा था मरण।
आपके पुण्य प्रताप से-
मेरा उदभव हो सका है।
कुछ अधिक ही उनको सुरूर चढ़ गया था,
पास बैठे पिता को देखकर-
उनका मूड उखड गया था।
बोले, ‘ कुत्ते अपनी औकात भुला बैठा है’ ,
जो इस तरह सहन में आ बैठा है।
उन्होंने पकड़ा उनका हाथ,
खींच कर ले चले अपने साथ।
बाहर टंगे कुत्ते के पट्टे को,
उनके गले में डाल दिया-
और एक सूखी रोटी का टुकड़ा-
उनके आगे डाल दिया।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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