दुश्वारियों भरी है रात,
पूस की मनहूस रात।
सर्दी यह पूस की बहुत ही सताती है,
रोके नहीं रूकती सरकती ही आती है।
रहते हैं कपड़ों से लदे फदे-
फिर भी गात कँपकपात............ पूस की...........।
जाड़े में नहीं कोई आता है,
नहीं कोई जाता है।
निर्जन हो जाती हैं गलियाँ-
सभी घरों में दुरात............ पूस की...........।
शीत बीमारियों का बहाना है,
बड़े बूढों की मौत का परवाना है।
ओढ़े रहते हैं कम्बल और रजाइयाँ-
फिर भी हाड़ हड़-हड़ात............ पूस की...........।
बेआसरा रात ठंड की संग संग बिताते हैं,
भूलकर जाति पाँत एक ही टाट में छिपाते हैं।
बिसार कर दुश्मनी साँप-नेवला-
एक ही खोह में रहात............ पूस की...........।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
पूस की मनहूस रात।
सर्दी यह पूस की बहुत ही सताती है,
रोके नहीं रूकती सरकती ही आती है।
रहते हैं कपड़ों से लदे फदे-
फिर भी गात कँपकपात............ पूस की...........।
जाड़े में नहीं कोई आता है,
नहीं कोई जाता है।
निर्जन हो जाती हैं गलियाँ-
सभी घरों में दुरात............ पूस की...........।
शीत बीमारियों का बहाना है,
बड़े बूढों की मौत का परवाना है।
ओढ़े रहते हैं कम्बल और रजाइयाँ-
फिर भी हाड़ हड़-हड़ात............ पूस की...........।
बेआसरा रात ठंड की संग संग बिताते हैं,
भूलकर जाति पाँत एक ही टाट में छिपाते हैं।
बिसार कर दुश्मनी साँप-नेवला-
एक ही खोह में रहात............ पूस की...........।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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