चाँद-चाँदनी की अनुपस्थिति में,
तारे खिलखिला रहे हैं।
कभी कभी अमावस भी होनी चाहिये।
बिलों से निकल कर चूहे-
कर रहे हैं धमाचौकड़ी।
आज पूसी मौंसी घर पर नहीं है,
आओ कुछ देर हँसलें खेल लें।
मित्रो, आज बॉस नहीं हैं,
चलो रमी खेल लेते हैं।
आज अवकाश है।
भूल कर चिंता फिकर-
पिकनिक पर चलें।
इस दुर्गंधमय वातावरण में,
अय गुलाब तू क्यों महक रहा है।
चल समेट ले अपनी गंध,
तुझे यहाँ कौन रहने देगा।
छोटी छोटी खुशियों के पलों में-
चहक लेते हैं।
क्या पता ये भी फिर,
मिलें न मिलें।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
तारे खिलखिला रहे हैं।
कभी कभी अमावस भी होनी चाहिये।
बिलों से निकल कर चूहे-
कर रहे हैं धमाचौकड़ी।
आज पूसी मौंसी घर पर नहीं है,
आओ कुछ देर हँसलें खेल लें।
मित्रो, आज बॉस नहीं हैं,
चलो रमी खेल लेते हैं।
आज अवकाश है।
भूल कर चिंता फिकर-
पिकनिक पर चलें।
इस दुर्गंधमय वातावरण में,
अय गुलाब तू क्यों महक रहा है।
चल समेट ले अपनी गंध,
तुझे यहाँ कौन रहने देगा।
छोटी छोटी खुशियों के पलों में-
चहक लेते हैं।
क्या पता ये भी फिर,
मिलें न मिलें।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
3 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 19 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुंदर रचना।
मेरी नई पोस्ट पर आपका स्वागत है 👉👉 लोग बोले है बुरा लगता है
छोटी छोटी खुशियों के पलों में-
चहक लेते हैं।
क्या पता ये भी फिर,
मिलें न मिलें।
बहुत सही कहा आपने,
मैं भी अब यह महसूस करता हूँ ,प्रणाम।
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