Sunday, 1 March 2020

ओ राही न सोच मंज़िल की

चंद अश्आर :
वाजिब है तुम्हारा रूंठना
मगर यह तो देख लेते
मुझमें मनाने का-
शऊर है या नहीं।

कहीं तुम वही तो नहीं
जिसके ख़यालों से झनझना उठता हूँ
सनसना उठती है दिमाग़ की पतीली
मन में आने लगता है उफान।

ओ राही न सोच मंज़िल की
चलता रहेगा पहुँचेगा कहीं न कहीं
वैसे भी किस्मत के आगे
किसकी चली है।

मैं नहीं होना चाहता हूँ बेचैन
नहीं उग्र
बस रफ़्ता रफ़्ता यों ही चलती रहे
ज़िन्दगी।

जयन्ती प्रसाद शर्मा, दादू।

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