घिर घिर बदरा आबते, बिन बरसें उड़ जांय।
नीको जोर दिखावते ,पर बरसत हैं नायँ।
पर बरसत हैं नायँ ,दया नहि दिखलाते हैं।
गरजत चमकत खूब,नहीं जल बरसाते हैं।
रहते चलायमान ,बादल रहते नहीं थिर।
नहि होती बरसात, जलद आते हैं घिर घिर।
सावन सगुन मनाइये झूला झूलौ जाय,
पैंग बढ़ाइ लेउ पकड़ बदरा उड़ नहि जाय।
बदरा उड़ नहि जाय मेघ बरस पहले यहाँ ,
फिर चाहौ उड़ जाउ या बरसौ चाहे जहाँ।
कह दादू कविराय जल बरसाते श्याम घन,
भले गये दिन आय झूम कर आया सावन।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
नीको जोर दिखावते ,पर बरसत हैं नायँ।
पर बरसत हैं नायँ ,दया नहि दिखलाते हैं।
गरजत चमकत खूब,नहीं जल बरसाते हैं।
रहते चलायमान ,बादल रहते नहीं थिर।
नहि होती बरसात, जलद आते हैं घिर घिर।
सावन सगुन मनाइये झूला झूलौ जाय,
पैंग बढ़ाइ लेउ पकड़ बदरा उड़ नहि जाय।
बदरा उड़ नहि जाय मेघ बरस पहले यहाँ ,
फिर चाहौ उड़ जाउ या बरसौ चाहे जहाँ।
कह दादू कविराय जल बरसाते श्याम घन,
भले गये दिन आय झूम कर आया सावन।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
3 comments:
वाह सुन्दर।
वाह ... सुन्दर रचना है ...
वाह शर्मा जी, काका हाथरसी की याद दिला दी आपने
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