रहना चाहता था मैं निरापद, बचता रहा नदी, नाले और बम्बे से,
नहीं छुआ भड़कते शोलों को, रहा दूर बिजली के खम्बे
से।
बचते बचाते भी एक दिन भारी कयामत आ गई,
मेरी भोली नज़र उनकी शातिर आँख से टकरा गयी।
आग सी तन मे लगी, झंकृत तार दिल के हो गये,
नहीं हो सके थे हम किसी के, अब उन्हीं के हो गये।
लहराया जब आंचल उन्होंने, मैं उसकी झपट में आगया,
धीरे से बड़ी जोर का झटका
मेरा दिल खा गया।
मैं आदमी था काम का उनके
इश्क ने निकम्मा कर दिया,
लोगों ने बदल कर नाम मेरा
अब हरम्मा कर दिया।
हे प्रभो न करना हाल ऐसे
अपने किसी बन्दे के,
न डालना किसी को फेर में
इस इश्किया निकम्मे के।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
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