Friday, 30 May 2014

अनजानी सी राह

अनजानी सी राह पर चलता रहा वह निरुद्देश्य।
न थी उसकी कोई मंजिल, न था कोई लक्ष्य।
बस सामने थी एक अनंत राह-
जिसका न था कोई ओर न कोई छोर।
उसने किसी हमसफर से न की कभी कोई बात-
न पूंछी कुशलात, बस चलता ही रहा।
पल भर को न किया ठहराव,
न ठिठका क्षण भर किसी सघन वृक्ष की छाँव में-
करने को श्रम दूर।
लगता था उसको, था केवल चलते रहने का जूनून।
न किया कभी नैसर्गिकता का दर्शन, न अवलोकन-
वातावरण में पसरी सुषमा का।
उसने न कही अपनी, न सुनी किसी की व्यथा कथा,
न द्रवित हुआ मन किसी की देख कर दुर्दशा।
अब वह अपने निरुद्देश्य भटकने से ऊब चूका था-
टूट चूका था।
वह थककर, भरभराकर गिर पड़ा।
उसके प्राण पखेरू उड़ चले थे अनन्त आकाश में-
किसी अनजानी मंजिल की ओर।
शायद यही उसकी नियति थी।
जयन्ती प्रसाद शर्मा            

Tuesday, 27 May 2014

पारम्परिक प्रतिद्द्न्दी

पाक भारत का, भारत पाक का है–
पारम्परिक प्रतिद्द्न्दी।
इनकी प्रतिद्दन्दिता है सास बहु जैसी–
जिसके लिए किसी मुद्दे की जरुरत नही होती।
बहु परदे की ओट से दिखा देती है–
सास को अँगूठा,
और सास प्रत्युत्तर में लगा देती है–
कोसाओं और बद्दुआओं का अम्बार।
कभी यह प्रतिद्दन्दिता खतरनाक रूप से बढ़ जाती है–
और लगने लगता है होने वाला है भीषण युद्ध।
अड़ौसी–पड़ौसी बन कर एक दूसरे के पक्षधर,
अथवा बन कर तमाशबीन–
मैदान में आ जाते हैं।
कुछ प्रभावशाली दिखाने को अपना प्रभाव,
दोनों के मध्य कराने को सुलह वार्ता–
प्रयास में लग जाते हैं।
विवाद की परिणिति हो जाती है–
शान्ति वार्ता के दौर में।
लगता है यह सब ऐसे ही चलता रहेगा–
और स्थाई शान्ति की बात बन कर रह जायगी एक स्वप्न।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Monday, 26 May 2014

सफलता के बाद

कुछ अपनों के, कुछ परायों के कन्धों का लेकर सहारा-
पहुँच चुका था वह सफलता के उच्चतम शिखर पर।
आत्म गौरव से भर गया था वह,
साथ ही बौरा गया था।
उसने मिटा दिया था अपनी उन्नति में प्रयुक्त हर साधन, संसाधन को।
वह भूल गया था नीचे आने के लिये भी आवश्यक होती हैं सीढियाँ।
आत्म विभोर होकर उसने सिर उठा कर देखा,
वहाँ उच्चता ही उच्चता थी।
न था वहाँ कोई एसा जो उसे उसकी उन्नति और आत्म गौरव का-
कराता एहसास।
सभी वहाँ तक या और आगे तक पहुंचे थे स्व के साथ।
वह सफलता के नुकीले शिखर पर मुश्किल से खड़ा हो पा रहा था,
इस प्रयत्न में वह कभी कत्थक, कभी भरतनाट्यम करता सा 
प्रतीत हो रहा था।
इतर प्रंशसा के अभाव ने उसे आत्म ग्लानि से भर दिया,
उसे होने लगी तीव्र लालसा कमतरों के बीच आने की।
सिर झुका कर उसने देखा नीचे की ओर।
न दिखाई देने पर धरातल उसने बंद कर लीं अपनी आँखें घबरा कर,
वह रख ना सका संतुलन और लुढ़क कर आने लगा तेजी से नीचे की ओर। 
कुछ ही पल बाद सब चिन्ताओं से मुक्त उसका निष्पंद शरीर पड़ा था- 
धरा पर।

जयन्ती प्रसाद शर्मा  

Friday, 23 May 2014

चेन स्नेचर

उसने गली के मोड़ से देखा,
उसके घर के बाहर लगी हुई थे लोगों की भीड़।
कुछ लोग अन्दर जा रहे थे,
कुछ बाहर आ रहे थे।
वह आशंकित होकर बढ़ चला तेजी से–
और हो गया घर में प्रविष्ट।
सहन में खड़ी उसकी माँ के इर्द गिर्द खड़े थे लोग–
और देख रहे थे उसकी छिली गर्दन।
वे कर रहे थे तरह तरह की बातें।
कुछ कोस रहे थे उस चेन स्नेचर को–
जो झपट्टा मार कर ले उड़ा था उनके गले से सोने की चेन।
कुछ दे रहे थे परामर्श पुलिस में लिखाने को वारदात की रिपोर्ट–
और कुछ कर रहे थे आकलन नुकसान का।
वह सब कुछ सुनता हुआ टटोल रहा था–
अपनी पेंट की जेब में पड़ी सोने की चेन,
कभी देखने लगता था- 
माँ के गले में पड़े निशान को।
उसने जेब से निकाल कर– 
लेली चेन अपने हाथ में।
कहते हुए,’ओह माँ वह तुम थीं,’ रख दी चेन–
माँ की हथेली पर।
वह आश्चर्य से देखने लगीं हथेली पर रखी अपनी चेन–
और सामने खड़े अपने बाइकर सुपुत्र को।
पुत्र का यह रूप देख कर वह रह गईं थीं हत्प्रभ–
और शर्म से झुक गई थी उनकी छिली गर्दन।

जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Thursday, 22 May 2014

मुझे साजन के घर जाना है

मुझे साजन के घर जाना है।
आओ शीलू, नीलू आओ तुमने मुझे सजाना है।.......मुझे साजन.......।
करना मेरा षोडश श्रृंगार,
जायें सजन दिल अपना हार।
भूल जायें आंखें झपकाना-
अनुपम सौन्दर्य मेरा निहार।
यत्नपूर्वक केश विन्याश कर–
जूड़ा रुचिर बनाना है............................मुझे साजन..........।
भौहें हो ऐसी बनी हुई,
जैसे कमान हो तनी हुई।
बिंदी लाल भाल पर हो,
कृत्रिम तिल एक गाल पर हो।
लटक जाये जिसमें उनका मन–
उलझे बालों की लट ऐसे लटकाना है......मुझे साजन..........।
मेरे हाथों में मेंहदी लगवा दो,
स्वर्णाभूषण मुझको पहना दो।
अंगराज मेरे अंग लगा कर,
तन मन मेरा महका दो।
भूल जायें सुधि अपने तन की–
मुझे मन उनका गमकाना है.................मुझे साजन...........। 

जयन्ती प्रसाद शर्मा


Monday, 19 May 2014

भंवरे की फितरत

अपने इर्द गिर्द भँवरे को मंडराता देखकर,
उसकी फितरत से अनजान वह सद्ध विकसित कली-
भर गई गर्व से।
उसे लगा उस जैसा रंग और गंध नही है–
किसी और के पास।
भँवरे को रोके रखने की, बांधे रखने की क्षमता-
केवल उसी में है।
वह उपवन की अन्य कलियों को,पुष्पों को-
देखने लगी हिकारत से।
कुछ समय बाद,वह कली बन गई पूर्ण विकसित पुष्प।
उसका चुक गया था रस,मंद पड़ गई थी गंध–
और क्षीण हो चुकी थी सुषमा।
भँवरे को नहीं रह गया था उसमें कोई आकर्षण।
स्वभाव वश,वह मंडराने लगा अन्य विकसित कली पर–
रस की तलाश में।
देख कर भँवरे की फितरत,
दुख और शर्म से बिखर गई वह।
उसका दर्प चूर चूर हो चुका था।
जयन्ती  प्रसाद शर्मा





Sunday, 18 May 2014

चींटी के पर निकल आये हैं

बड़ी मुद्दत के बाद वे मेरे पास आये हैं,
आते ही बोले, ‘चींटी के पर निकल आये हैं’।
मैंने कहा, ‘आप क्यों संतप्त हैं,
उसके निकले पर ईश्वर से प्रदत्त है।
आपको किसी का उत्कर्ष नहीं भाता है,
कोई कुछ पाता है तो आपका क्या जाता है।
वे बोले, ‘आपके मार्गदर्शन को आता हूँ’,
वह जल ना जाये दीपशिखा में सोच कर घबराता हूँ।
शमा की लौ में अगर जल कर वो मरेगी,
पालेगी शलभ धर्म न कुछ अलग करेगी।
कीट पतंगे नहीं बे पर के उड़ते-उड़ाते हैं,
लेकिन आप तो बे पर के उड़ते हैं बे पर की उड़ाते हैं।
पिछले वर्ष आपके बे पर की उड़ाने से,
आपसी सौहार्द बिगड़ गया था
आपकी करतूत से शहर,
फेर में साम्प्रदायिकता के पड़ गया था।
महोदय, मेहरबानी करके-
अपनी आदत में सुधार लाइये
बे पर के उड़ने, बे पर की उड़ाने से-
बाज आइये।


जयन्ती प्रसाद शर्मा

Saturday, 17 May 2014

बरसों पुराना एक ठूंट

बरसों पुराना एक ठूँठ यों ही खड़ा हुआ था–
घर के आँगन में।
सुना है वह कभी हुआ करता था एक विशाल वट वृक्ष।
उसकी घनी छाँह में बड़े बड़े गुड़गुड़ाते थे हुक्का,
बच्चे किया करते थे धमाचौकड़ी।
बड़े बूढों की अनुपस्थिति में–
गत यौवनायें, बुढीयायें बतियाती थी।
नव यौवनायें और छोटी छोटी बच्चियां खिलखिलाती थी-
और करतीं थी अठखेलियाँ।
कालान्तर में वह विशाल वट वृक्ष-
हो गया कालकवलित और खड़ा रह गया यह ठूँठ।
एक दिन मैंने देखा उस ठूँठ में फूट रही थीं-
हरी हरी कोपलें।
वह ठूँठ होना चाहता था पल्लवित।
मै प्रकृति की इस लीला को देखता रह गया।


जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Friday, 16 May 2014

ठुकराओ मत प्यार मेरा

ठुकराओ मत प्यार मेरा।
अहसासे हुस्न से तनी हुई हो,
हर मन की चाहत बनी हुई हो
हैं बहुत चाहने वाले तेरे,
अभी प्रसंशक तेरे घनेरे।
नहीं भाव में मुझको लातीं तोड़ दिया दिल मेरा .....ठुकराओ मत ......।
कुछ दूर-दृष्टि अपनाओ तुम,
मत ऐरे गैरे पर दिल लाओ तुम।
मन की भावना पहचानो–
मत रंग रूप पर जाओ तुम।
जब रस लेकर भंवरा उड़ जायेगा-
क्या हाल बनेगा तेरा................ठुकराओ मत ........।
सुन्दर मेरा रूप नहीं है,
व्यक्तित्व तेरे अनुरूप नहीं है।
सद्दभावना न मेरी पहचानी-
बोलो क्या यह विद्रूप नहीं है।
निरख-परख कर लो तुम मेरी–
भ्रम मिट जायेगा तेरा..........ठुकराओ मत .............।
जब चाँदी चमकेगी बालों में,
गड्ढे पड़ जायेंगे गालों में।
रूप रंग जब ढल जायेगा,
दन्त विहीन मुख हो जायेगा।
कोई पास नहीं आयेगा।
क्या हाल होगा तब तेरा..............ठुकराओ मत.........।


जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Thursday, 15 May 2014

रहना था हमको साथ

रहना था हमको साथ मगर दूर हो गये,
किस्मत ने  दिया साथ मजबूर हो गये।
हमने न की कोई जफा पर नहीं पाई बफा, 
बड़े अरमान से दिल हमने दिया था तुमको सनम ओ बेबफा।
बेबफाई तेरी से हम खुशियों से महरूम हो गये…… किस्मत ने न दिया......।
रहना नहीं था साथ तो क्यों प्यार किया था,
साथ जीने मरने का इकरार किया था।
चाहत में तेरी हम बदनाम बेकसूर हो गये.... किस्मत ने न दिया……..।
आपने ही हमको अपना न बनाया,
नहीं पूंछी कभी बात न दिल से लगाया। 
है वक्त की यह बात हँसी मगरूर हो गये ………किस्मत ने न दिया………।
तेरी हसीन मूरत दिल में मेरे रखी है,
तेरे बदन की खुशबू मेरी साँस में बसी है,
हम आशिक तेरे नाम से मशहूर हो गये......किस्मत ने न दिया……..।
जयन्ती प्रसाद शर्मा 





सपना

मैंने एक सपना देखा-
आज पार्क में घूम रही थी मेरे संग अभिनेत्री रेखा......मैंने एक.......।
वह संग संग मेरे डोल रही थी,
मुझको नजरों से तोल रही थी।
सुन्दर सुमुधुर अपने बोलों से-
कानों में रस घोल रही थी।
मंत्र मुग्ध सा खड़े खड़े ही मैंने उसको-
चोर दृष्टि से देखा ......मैंने एक.......।
सोचा मैंने मुझको वह अपनायेगी,
मेरे मन की घंटी भी बज जायेगी।
कोई छेड़ कर प्रेम तराना-
मन में मेरे प्रेम सुधा बरसायेगी।
परन्तु अचानक सपना टूटा-
पड़े हुए अपने को मैंने पत्नी के पैरों में देखा।


जयन्ती प्रसाद शर्मा 







Wednesday, 14 May 2014

शिवस्तुति

शिवा कान्त की बोलो जय,
करुणा कर सब कष्ट हरेंगे, कर देंगे तुमको निर्भय.....शिवाकांत.....।
महादेव देवाधिदेव, मेरे आराध्य तुम एक मेव,
मूलाधार प्रभु तुम मेरे मुझको आलम्बन सर्वदा त्वमेव।
प्रभु मेरे दुख दूर करेंगे नहीं कोई इसमें संशय..........शिवाकांत........।
हे विश्वनाथ हे कृपानिधान, हर चेहरे को दो मुस्कान,
रहें सर्वदा सुखीजन कोई ना हो दुख से हलकान।
शिवशंकर कल्याण करो तुम मृत्युभय दूर करो मृत्युजंय..शिवाकांत..।
आक धतूरा भोग में पाते, केवल जल से खुश हो जाते,
जलाभिषेक जो करते, शिव का अनायास वांछित पा जाते।
भर देते भण्डार भक्त का निर्धनता का कर देते हैं क्षय...शिवाकांत....।
जय नीलकण्ठम, विश्वनाथम्,
गंगेश्वरम, रामेश्वरम
जय प्रलयकरम , कपालेश्वरम,
कुमारेश्वरम, प्रतिेज्ञेश्वरम।
भक्तिभाव से कर वंदन, उमाकान्त की बोलो जय.......शिवाकांत.......।

जयन्ती प्रसाद शर्मा