Sunday, 30 December 2018

अब तुम शीत कहाँ से आये?

अब तुम शीत कहाँ सेआये?
ढूँढत रहे ग्रीष्म भर तुमको,
हमको तुम नहीं पाये.........अब तुम..।
              हम रहे ढूंढते वन उपवन में,
              ताल तलैया और पोखरन में।
              नदियाँ और तालाब खंगाले,
              कीन्हीं खोज सघन कुंजन में।
पाने को गर्मी से राहत,
रहते थे बिजन डुलाये...........अब तुम..।
              गर्मी तो हमें सताती ही थी,
              तुम भी निष्ठुर बने रहे।
              पाने को क्षणभर शीतलता,
              हम रहते घन्टों पानी में खड़े रहे।
भीषण ताप से मुक्ति हेतु,
सौ सौ बार नहाये...........अब तुम ..।
              तुम भी क्या करते बेचारे,
              संकट में थे प्राण तुम्हारे।
              कैद में थे धनिकों की तुम,
              पाते थे शीतलता एसी कूलर बारे।
भये बरबंड छूट कैद से,
कहर रहे बरपाये......अब तुम...।
              जाड़े में सर्दी करे जुलम,
              कपड़ों की गठरी बन गये हम।
              वस्त्रों से जितना ढाँपे तन,
              उतना ही सर्दी करे सितम।
चाय गटकतेअलाव तापते,
हम जाड़े के दिन रहे बिताये...अब तुम..।
जयन्ती प्रसाद शर्मा
चित्र गूगल से साभार






Monday, 24 December 2018

हाइकु

सदुपयोग
करो अवसरों का
फल मिलेगा।

रहो सजग
नहीं हो अपकर्म
सुखी रहोगे।

भाई साहब
आप न हों उदास
रखें धीरज।

मिलेगा चीता
उचित अवसर
जब आयेगा।

रखें भरोसा
हो सकती है देर
नहीं अंधेर।

नंद के छैया
सबकी सुनते है
वंशी बजैया।

पाओगे पार
दुखों के झंझावात
मिट जायेंगे।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Friday, 14 December 2018

वह समझ न सकी

वह समझ न सकी वह समझा न सका,
बीत गई उम्र समझते समझाने में।
कुछ ऐसे तल्ख हुये रिश्ते,
वह अब बैठा करते हैं मयखाने में।
           खेल-खेल में ले लिया दर्द,
           अब झेले नहीं झिलता है।
           वे हो गये हैं बेदर्द और रूखे,
           नहीं उनकी फितरत से चैन मिलता है।
नहीं चल सकोगे साथ मेरे,
कह कर दिल उन्होंने तोड़ दिया,
पर मैं हो नहीं सका उनसे जुदा,
उनकी यादों से खुद को जोड़ लिया।
            थोड़ी सी मुझे पिला दे साकी,
            तौर ए मुहब्बत सिखला दे।
            कैसे हो जाता है प्यार किसी से,
            यह राज मुझे भी बतला दे।
उनकी बेरुखी से दिल मेरा जला कोई बात नहीं,
चमक से उसकी कई घर रोशन हो गये है।
कई दिनों से ठंडे पड़े चूल्हे,
उसकी तपिश से गर्म हो गये हैं।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Saturday, 1 December 2018

शमा रातभर जलती रही

शमा रातभर जलती रही,
पिघलती रही।
खोती रही अपना अस्तित्व,
मिटाने को तमस।
उसकी सदेच्छा,
न भटके कोई अँधेरे में।
न होये अधीर,
घबड़ा कर निबिड़ अन्धकार से।
उसके परोपकारी भाव का,
नहीं दिया किसी ने सिला।
नहीं गाया किसी ने प्रशस्ति गीत,
उसके उत्सर्ग  का।
पतंगा, सृष्टि का क्षुद्र जीव,
न सह सका आभारहीनता।
वह हो गया उद्यत बचाने को,
शमा का अस्तित्व।
वह दीवानगी की हद से गुजरता रहा,
बुझाने को शमा उसकी लौ में जलता रहा।
पतंगों की लाशों का लग गया ढेर,
शमा वैसे ही निर्विकार जलती  रही।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Sunday, 25 November 2018

हाइकु

मेरा भारत
अनेक भाषाभाषी
रहते यहां।

पालते धर्म
बिना भेदभाव के
करते कर्म।

हवा सबकी
आसमान सबका
जमीं सबकी।

झंडा उठाओ
'जय भारत माता'
नारे लगाओ।

करो न शक
हैं सब देशभक्त
नहीं संदेह।

करो प्रयास
दल दल दलों का
हो जाये साफ।

साफ कर दो
कूड़ा राजनीति का
अभियान से।

साकार करो
सपना भारत का
हो विश्वगुरु।


जयन्ती प्रसाद शर्मा




Saturday, 17 November 2018

हम नहीं थे इनके

हम नहीं थे इनके नहीं थे उनके,
सबके ही हम खास रहे।
नहीं किसी से दूर रहे,
सबके ही हम पास  रहे।
जो मिला उसे अपना समझा,
जो नहीं मिला उसे सपना समझा।
रूठे अपने टूटे सपने,
नहीं रोये नहीं उदास रहे।
चूमना चाहते थे हम गगन,
छू भी न सके पर रहे मगन।
नहीं विफलता से हुए विकल,
असफलता से नहीं निराश रहे।
झेले जीवन में झंझावात,
करने पड़ जाते थे उपवास।
नहीं घबड़ाये नहीं बिल्लाये,
नहीं हालातों के दास रहे।
नहीं समेटने की रही भावना,
नहीं घर भरने की रही कामना।
सारा जहाँ हमारा था,
सर्वे भवन्तु सुखिन को करते हम प्रयास रहे।

जयन्ती प्रसाद शर्मा


Friday, 9 November 2018

बोलौ गोरी रहिहौं कित में,

बोलौ गोरी रहिहौं कित में,
कै काहू के आईं पाहुने,
देखी नहीं कबहू इत में।
मैं सब बीथिन में आवत जावत, 
घूमूँ वनखड़ में गऊ चरावत।
सिगरौ वृज मेरौ देखौ भालौ,
तुम दिखीं नहीं कबहू उत में।
कै तुम आईं नंद बवा के,
सर्वाधिक गउएँ खरिक में जाके।
कै तुम भूलि गयी हौ पथ,
चैन नहीं चित में।
बोलौ मैं का कर्म करूं,
तुम्हें कहाँ बिठाऊँ कहाँ धरूं।
छोड़ शर्म कहौ करिबे कूँ,
जो हो कर्म तुम्हारे हित में।
जयन्ती प्रसाद शर्मा






Monday, 5 November 2018

गांधीगीरी

अपनी नेतागीरी चमकाने को,
दबंग को गांधीगीरी दिखाने को।
वे पहुँच गये लेकर गुलाब के फूल,
पर वह नहीं हुआ अनुकूल।
फेंक दिये उसने नोंचकर फूल-
और चटा दी उनको धूल।
हाथ-पैर तुड़ाकर,
सिर फुटौबल करा कर।
चारपाई पर पड़े पड़े कराह रहे हैं,
गांधीगीरी ईजाद करने वालों को-
गालियाँ सुना रहे हैं। 

जयन्ती प्रसाद शर्मा     

Saturday, 27 October 2018

जग दुख का आगार है(कुंडलियाँ)

जग दुख का आगार है नहीं रोइये रोज।
रोना धोना छोड़ कर सुख के कारक खोज।।
सुख के कारक खोज लगा लत नेक काम की।
कर दुखियों की मदद फिकर नहीं कर इनाम की।।
परमारथ की लगन जब तुम्हें जायेगी लग।
भूलोगे निज कष्ट लगेगा अति सुंदर जग।।

पोथी पढ़कर फैंक दी हुआ न कुछ भी ज्ञान।
नहीं किया चिंतन मनन सोये चादर तान।।
सोये चादर तान नींद में सभी भुलाने।
नहि मिल पाया ज्ञान अकिभी तक रहे अयाने।।
करें निरर्थक तर्क दलीलें देते थोथी।
दिया न कोई ध्यान फैंक दी पढ़ कर पोथी।।

जयन्ती प्रसाद शर्मा 

Saturday, 20 October 2018

सुन चिड़े हो सावधान,

सुन चिड़े हो सावधान,
बदल गया है अब विधान।
हम दोनों हैं अनुगामी।
नहीं हो तुम मेरे स्वामी।
तुम मुझको नहीं  टोक सकोगे,
अब नहीं मुझको रोक सकोगे।
चाहे कहीं भी मैं जाऊँ,
चाहे किसी के नीड़ रहाऊँ।
तेरी ही होकर नहीं रहूँगी,
जहाँ  चाहूँगी मैं विचरूँगी।
मादाओं को नरों ने बहुत सताया,
अब आकर आजादी का सुख पाया।
प्रफुल्ल हैं नारियों के अन्तः करण,
जय हो तुम्हारी न्यायाधिकरण।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Saturday, 13 October 2018

धृतराष्ट्र थे जन्मांध

धृतराष्ट्र थे जन्मांध,
सुनयना थीं गांधारी।
पटका  बाँध  बनीं  निरंध,
ओढ़ ली लाचारी।
अविवेकी मन कुंठित  बुद्धि ने,
करी वंश वृद्धि।
सौ पुत्रों को दिया जन्म,
कुविचारों की हुई  सृष्टि।
पुत्र मोही राजा रानी,
पुत्रों को दे न सके संस्कार।
उनके धर्म विरोधी कार्यों का,
कर न सके प्रतिकार।
जो कहा पुत्रों ने वही,
सत्य मान लिया।
दृष्टिहीन होने के कारण,
नहीं संज्ञान लिया।
उचित मार्ग दर्शन के अभाव में,
कुरु वंश में अनीति विस्तारित हुई।
उनका दंभ और अनीति,
महाभारत में निस्तारित हुई।
काश ! महारानी गान्धारी,
नयनी ही रहतीं।
नहीं होता महाभारत,
वंश नाश का दुःख नहीं सहतीं।
वे नहीं ओढतीं कृत्रिम अंधता,
बाँध कर पटका।
पति, पुत्रों और राज्य का,
करतीं बहुत भला सबका।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

चित्र गूगल से साभार


Friday, 5 October 2018

जिनके बिगड़े रहते हैं बोल

जिनके बिगड़े रहते हैं बोल,
बातों में विष देते घोल।
वे सोच समझ कर नहीं बोलते,
नहीं जानते शब्दों का मोल।
आपे में वे नहीं रहते हैं,
जो मुँह में आता है कहते हैं।
वे नहीं जानते छिछली बातों से,
खुल जाती है उनकी पोल।
कुछ लोग बातों का ही खाते हैं,
बातों से वे अपनी साख बनाते हैं।
रहता है समाज में उनका दब दबा,
बोलते हैं जो शब्दों को तोल।
बड़बोलेपन से अक्सर बात बिगड़ती है,
सम्बन्धों में पड़ती दरार और तल्खी बढ़ती है।
चाहत घट जाती है उनकी,
खत्म हो जाता है मेल जोल।
जितना हो सके कम बोलो,
जरूरत से ज्यादा मत बोलो।
नहीं ढोल की पोल खुलेगी,
बची रहेगी इज्जत अनमोल।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Saturday, 29 September 2018

पावस की अमावस की रात

पावस की अमावस की रात 
किसी पापी के मन सी काली                                
घोर डरावनी 
गंभीर मेघ गर्जन                                                                
दामिनी की चमक कर देती है 
विरहणी को त्रस्त                                              
बादलों की गड़गड़ाहट से 
चपल चपला की कड़कड़ाहट से                                
वह चिहुक उठती है 
हो जाती है आशंकित  
बैरिन बीजुरी गिर न जाये नशे मन पर                            
डर कर सिमट जाती है 
लग जाना चाहती है प्रिय के सीने से
बरखा की शीतल बूंदें  
विरह से तपते शरीर पर                                               
लगतीं हैं तेजाब की फुहार सी 
उसकी बढ़ जाती है जलन                                 
वह कर उठती है सीत्कार 
अरे निर्दयी तुम्हें अभी परदेश जाना था                     
क्या नहीं लौटकर आना था 
देखकर मौसम की दुश्वारी
सोचकर क्या हालत होगी हमारी                                    
ओ संगदिल बेदर्दी सनम। 
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Friday, 21 September 2018

इंसानियत

मैं गलियों में गलियारों में इंसानियत ढूंढता रहा,
मंदिरों में मस्जिदों में उसका पता पूँछता  रहा।
वह मिली तो मिली सर्वहारों के बीच,
जिनका जीवन अभावों से जूझता रहा।
वे अपनी पीड़ा से दुखी रहते हैं,
अंग अंग उनके टीसते रहते हैं।
पूँछते हैं एक दूसरे की कुशल क्षेम,
नहीं चुराते जी दुख में संग रहते हैं।
वे लड़ते हैं झगड़ते हैं रूठते हैं,
इंसानियत के रिश्ते नहीं टूटते हैं।
आपदा में मिल जाते हैं हाथ,
मिले हाथ नहीं छूटते हैं।
सुविधाओं अय्याशियों में पले लोग,
कत्ल इन्सानियत का करते हैं।
करते हैं वरिष्ठों से मार पीट,
दुष्कर्म नारियों संग करते हैं।

जयन्ती प्रसाद शर्मा

Thursday, 13 September 2018

गणेश वन्दना

जय गणेश गिरिजा नन्दन, करते हैं तेरा वंदन................. जय गणेश.....।

शंकर सुवन भवानी नन्दन-
हम शरण तुम्हारी आये हैं।
पान, फूल, मेवा, मिष्ठान-
हम पूजा को लाये हैं।
सिंदूर का मस्तक पर तिलक लगा कर-
करते हैं तेरा अभिनन्दन.................जय गणेश.....।
मूषिकारुढ़ प्रभु कृपा करें,
भक्तों का संताप हरें।
अशुभ-अलाभ को करें दूर,
सबका मंगल आप करें।
भक्तिभाव से स्मरण तुम्हारा-
हम कर रहे सभी है भय भंजन।.......जय गणेश.....।
हे वक्रतुण्ड हे महाकाय,
दीनों के प्रभु करें सहाय।
अति प्रचंड है तेज तुम्हारा-
पटक पतितों का दें जलाय।
करें अभय संतप्त जनों को-
जो कर रहे दुखी हो कर क्रंदन..........जय गणेश.....।
अष्टसिद्धिनव निधि के दाता,
हों प्रसन्न हे बुद्धि प्रदाता।
द्दार तुम्हारे जो कोई आता,
खाली हाथ न कोई जाता।
स्वीकार करें प्रभु नमन मेरा-
हे गजमुख हे शिवनन्दन.................जय गणेश.....।
जयन्ती प्रसाद शर्मा






Saturday, 8 September 2018

सखी री मैं उनकी दिवानी

सखी री मैं तो उनकी दिवानी,
नहीं आवै उन बिन चैन।
मन तड़पत घायल पंछी सौ,
विरह करै बेचैन.................सखी री...........।
                    बानि पड़ी ऐसी अंखियन को,
                    प्रतिक्षण देखन चाहत उनको।
                    नहीं दिखाई दें वे पलभर,
                    लगें बरसने नैन....सखी री...........।
यादें उनकी जब जब आवें,
उठे हूक सी मन घबरावै।
कहा करूँ कुछ समझ न पाऊँ,
बीते जागते रैन........................सखी री...........।  
                    पड़े फफोले विरहानल के,
                    घाव टीसते हैं अब मन के।
                    पीर ह्रदय की सही न जावै,
                    लगी बहुत दुख देन.......सखी री...........।  

जयन्ती प्रसाद शर्मा
    

Friday, 31 August 2018

मैं अनुरागी श्री राधा कौ

मैं अनुरागी श्री राधा कौ!
नाम लेत बन जाती बिगड़ी,
महा मंत्र भव बाधा कौ•••।
राधा प्रसन्न, मैं प्रसन्न,
बात नही है यह प्रच्छन्न।
कर न सकूँगो मैं अनदेखी,
उनके भक्तों की ब्याधा कौ•••।
बिन राधा के श्याम अधूरौ,
कर न सकूं कोई काम मैं पूरौ।
वे हैं मेरी कर्म शक्ति,
मैं उन बिन प्रतीक आधा कौ•••।
मेरी पूरक बृषभान किशोरी,
राधे श्याम की अविचल जोड़ी।
कांतिमान हूँ उनसे ही मैं,
आभारी उनकी आभा कौ•••।
जयन्ती प्रसाद शर्मा



Sunday, 26 August 2018

मधुकर मत कर अंधेर

मधुकर मत कर अंधेर। 
अभी कली है नहीं खिली है,
नहीं कर उनसे छेड़।
वे अबोध हैं तू निर्बोध है,
प्रीत की रीत का नहीं प्रबोध है।
समझेंगी वे चलन प्रेम का,
रे भ्रमर देर सवेर.....................मधुकर मत........।
रह भँवरे तू कुछ दिन चुप,
खिलने दे कलियाँ बनने दे पुष्प।
चढ़ने दे उन पर मौसम के रंग,
मादक बनते नहीं लगेगी देर........मधुकर मत........।
खिल कर कलियाँ जब पुहुप बनेंगी,
उपवन को मोहक कर देंगी।
उड़ेगा पराग होगी सुरभित बयार,
चाहे फिर मकरंद चुराना एक नहीं दस बेर...मधुकर मत........।  
तू हरजाई है वे जानती हैं,
तेरी फितरत पहचानती हैं।
नहीं रहेगा उनसे बँधकर-
लेकर रस उड़ने में होगी नहीं अबेर.........मधुकर मत........।  

जयन्ती  प्रसाद शर्मा  
           

Sunday, 12 August 2018

जय शिव शंकर

जय शिव शंकर बम भोले।
पी गये गरल,
जैसे पेय तरल।
न बनाया मुंह,
न कुछ बोले ......जय शिव शंकर।
थी लोक कल्याण की भावना,
सबके प्रति थी सद्द्भावना।
हुआ कंठ नीलाभ,
भड़कने लगे आँख से शोले ......जय शिव शंकर।
चन्द्र कला सिर पर धरी उसकी शीतलता से विष ज्वाल हरी।
हुये शान्त उमाकांत,
सामान्य हुए हौले हौले ......जय शिव शंकर।
पसंद अपनी अपनी अपना खयाल,
लटकाये रहते कंठ व्याल।
आक धतुरा है अति प्रिय,
सटकते रहते भंग के गोले .....जय शिव शंकर।
जयन्ती प्रसाद शर्मा

Monday, 6 August 2018

ढाक के तीन पात

उसकी बात बात होती है,
मेरी बात गधे की लात।
लग जाये तो ठीक है वरना,
उसकी नहीं कोई बिसात।
                मैं जब तक प्रश्न समझ पाता हूँ,
                वह उत्तर दे देती है।
                मैं जब तक विषय में उतराता हूँ,
                वह समाधान दे देती है।
देख कर उसकी तत्परता,
मैं रह जाता हूँ अवाक्............................लग जाये तो.....................।
                वह नहीं जाती शब्दों की गहराई में,
                सीधा मतलब ले लेती है।
                जलपान कराने की कहने पर,
                लोटा भर कर जल दे देती है।
मैं प्रशिक्षु सा लगता हूँ,
वह लगती है पूर्ण निष्णात......................लग जाये तो....................।
                मेरे समझाने पर वह,
                मेरी क्लास ले लेती है।
                मंहगाई का कुछ करो ख्याल,
                मुझे उपालम्भ दे देती है।
इतना समझाती हूँ फिर भी-
रहते हो ढाक के तीन पात........................लग जाये तो....................।

जयन्ती प्रसाद शर्मा                        

Wednesday, 28 February 2018

अबकी बरस नहीं छोड़ूँगी

आयौ बसंत फूली सरसों,
खेतों से सौंधी महक उठी।
सोये से तरुवर जाग उठे
चिड़िया आँगन में चहक उठी।

पक गये धान मगन भये किसान,  
ओठों पर तैरी मुस्कान। 
चंग बजाते रंग जमाते
गाते सोरठ-फगुआ के गान। 

बात बात पर हँसती छोरी,
घूँघट में गोरी मुस्काती है। 
करती रह-रह कर सैन मटक्का
प्रीतम को भरमाती है। 

पिछली बरस मैं चूक गई,  
पर अबकी नहीं छोड़ूँगी।
खेलूँगी मैं तुम संग होरी
देवर को हू रंग में बोरुँगी।


जयन्ती प्रसाद शर्मा 

चित्र गूगल से साभार